गजेन्द्र के पूर्व जन्म संस्कार

गजेन्द्र के पूर्व जन्म संस्कार

लोक शिक्षा के लिए अवतार था ,जिस ने लिया।
जन अदृशय हो कर के भी ,
जन स्दृशय को कौतिक किया ॥
राम नाम ,नाम जिसका सर्व मंगल धाम है ।
नमन है श्री कृष्ण को ,श्रद्घा में प्रणाम है ॥
भगवान् श्री हरि के दर्शन पा कर ग्रह श्री हरि के समान रूप बना कर सभी देवताओं के देखते देखते देव लोक को चला गया तथा गजेन्द्र भी अपने हाथी की योनी को छोड़ कर श्री हरि के समान रूप वाला होकर वैकुण्ठ धाम को गया। इस रहस्य के पीछे भगवत महा पुराण में गज और ग्रह दोनों के पूर्व जन्म संकार की कथा मिलती है जिस से यह सिद्ध होता है कि सृष्टि का प्रत्येक जीव अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही सुख और दुःख भोगता है। सुखदेव जी ने अर्जुन पौत्र परीक्षत को समझाते हुए उनके पूर्व जनम कि कथा का वर्णन इस प्रकार किया कि गज पूर्व जन्म में पांडव कुल में उत्पन्न इन्देर्धुमन नाम का राजा था जो प्रजा पालन में कुशल वैष्णो का चरण अनुरागी था कालांतर में उसने इस आशय से राज पाठ स्त्री और पुत्र सभी का त्याग कर दिया कि वह प्रभु भक्ति कर अपने जीवन को सफल और सुखद बनाएगा फलस्वरूप इन्देर्धुमन जंगल में जा कर प्रभु चरणों में आसक्ति लिए तपस्या करने लगा एक दिन अपने शिष्य मंडलों के साथ आए अगुस्त मुनि को राजा ने प्रणाम निहीं किया और न ही सम्मान दिया। राजा इन्देर्धुमन तपस्या में बैठे हुए थे। अतिथि सम्मान न होने के कारण ग्रहस्थी और राज धरम दोनों का अपमान होता है इस कारण अगस्त मुनि ने यह विचार करते हुए कि राजा अपने राज कर्तव्यों को भूल कर पाखण्ड कर रहा है। जिस से समाज और राष्ट्र दोनों का विनाश होगा। राजा के स्थिर बैठे होने के कारण हाथी के समान विशाल काया होने का श्राप दिया एवं वहाँ से चले गए।
प्रभु इच्छा संसार में सबसे अधिक बलवान होती है इस कारण से राजा ने प्रभु इच्छा को बलवान मानते हुए तथा अपने पूर्व जनम का कोई खराब फल मानते हुए ऋषि श्राप को स्वीकार किया यही राजा अगले जन्म में देव लोक के त्रिकुट नमक पर्वत पैर गजेन्द्र के नाम से विख्यात हुआ। गजेन्द्र के बारे में कहा जाता है कि इस के बक के प्रभाव से जंगल के जानवर ,पक्षी सभी निर्भीक हो गए थे। गाय ,शेर आपस में मिल जुल कर रहते थे। इसके मस्तक से एक गंध निकती थी जिसके आने जाने का सभी जानवरों को आभास हो जाता था प्रभु कृपा के कारण तथा पूर्व जनम के संस्कार के फलस्वरूप हाथी जैस त्रिएक योनी में भी इसका ज्ञान नष्ट नहीं हुआ। और वह प्रभु समरं करता रहा। जिस के कारण प्रभु ने उसे अपना परम धाम दिया। इसी प्रकार ग्रह के बारे में कहा जाता है कि ग्रह हूहू नाम का एक गंधर्व था जो देवल मुनि के श्राप के कारण मगरमच्छ बन गया था श्राप के अनुसार इसे मगरमच्छ कि गति केवल भगवान् विष्णु ही कर सकते थे पूर्व जन्म के बैर के कारण इन दोनों का जल के अंदर युद्ध चला। प्रभु ने दोनों को ही सद्गति दी।
प्रेरणा : गजेन्द्र मोक्ष कि यह कथा हमें यह प्रेरणा देती है कि संसार रूपी माया ग्रह के सामान ही एक जंजाल है। इस जंजाल से छुटकारे के लिए जब तक इश्वरिये बल कृपा के रूप में कार्य ना करे तब तक गति नही हो सकती। जंजाल नहीं छुट सकता है। इश्वर कृपा को प्रप्र्ट करने के लिए आध्यात्मिक बल सबसे बड़ा सहारा है.इस कथा का मूल सार यह भी है कि जीवन में असहाय एवं दयनीय अवस्था में इश्वर के आधीन हो कर कार्य करना चाहिए ,संसार के नहीं।
इश्वरिये बल कृपा हमेशा आप के काम आयेगा। संसार से तो धोखे ही मिलते हैं। जैसे गजेन्द्र को मिला था। भगवान् सुखदेव जी का मानना है कि गजेन्द्र मोक्ष के स्त्रोत्र को रात्रि के अन्तिम प्रहर या ब्रह्म महूरत के समय किसी धर्म स्थान ,मन्दिर या सरोवर पर निरंतर पाठ करने से सभी प्रकार के भावः रोगों का प्रभु कृपा से नाश होता है.

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