सभी प्रकार के वास्तु दोषों को दूर करते है सिद्धिदाता गणेश

सभी प्रकार के वास्तु दोषों को दूर करते है सिद्धिदाता गणेश
भगवन श्री गणेश जी को प्र्थ्मेश्वर विघन हरने वाले सिद्धेश्वर के नाम से जाना जता है। कहा जता है की गणेश उपासना से मानसिक शान्ति के साथ साथ सुख व समृद्धि मिलती है। हिंदू दर्शन के साथ साथ गणेश जी के बारे में जैन धर्म में भी इनकी पूजा तथा प्रर्तिमायें मिली हैं जैन धर्म के अनुसार भगवन गणेश जी को गणेश्वर विनायक के नाम से जाना जाता है जिसका उल्लेख १६वी सदी से १८वी सदी के श्वेताम्बर जैन कवियों की हिन्दी एवं राजस्थानी भाषाओँ में मिलता है। इसके अलावा बौधों ने भी अपने धर्म के प्रचार के साथ साथ हिंदू धर्म के देवता श्री गणेश एवं अन्य देवी देवताओं को कुछ अन्तर के बाद ज्यों का त्यों मान लिया है। जिसका उल्लेख नेपाली बौध साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ गणपति ह्रदय में मिलता है। जो बौधों की सभी कामना सिद्ध करने वाला ग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ का प्रत्येक मन्त्र - ॐ नमस्तुते गणपतये स्वाहा ,ॐ गणपतये स्वः से प्रारम्भ होता है। भगवान् श्री गणपति जी के जन्म के बारे में हिंदू दर्शन में उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार धर्म तत्व स्थूल के साथ साथ सूक्ष्म बन कर ब्रहम रूप और आध्यात्म रूप दोनों में मिल जाता है। अगर इस दृष्टि से गनपत तत्व पर विचार करें तो हमारे सामने कई मार्मिक तत्व सामने आते हैं जिस से गणेश के बाहिय रूप की व्याख्या होती है ,बाहिय रूप के अनुसार गणेश जी को भगवन शिव व पार्वती जी का पुत्र माना गया है। शिव और पार्वती सोम के रूप माने गायें हैं। इस सृष्टि का आरम्भ अग्नि और सोम के सहयोग से हुआ है। सृष्टि के अग्नि तत्व में सोम तत्व का प्रतिनिध्तव करने वाले श्री गणेश हैं। किंतु ब्रह्मबेवर्त स्कंध व लिंग पुराण के अनुसार गणेश जी के जनम की अनेक जनश्रुतियां मिलती हैं। कुछ के अनुसार गणेश जी का जन्म भगवान् शिव से हुआ ,भगवान् शिव नें इस बालक को तपस्या के बल पर निर्माण कर के पालन पोषण किया। कुछों के अनुसार मान पार्वती के शरीर से उत्पन्न पसीने के भूमि पर गिरने से सिद्ध दाता गणेश जी की उत्पत्ति हुई जिसको द्वारे पर बिठला कर मां पार्वती स्नान करनें चली गई इस बालक नें कुछ समय बाद आए भगवान् शिव को अंदर जानें से रोक दिया जिस पर शिव नें क्रोधित हो कर इस बालक को मस्तक हीन बना दिया। तत्पश्चात पार्वती जी के क्रोध और विलाप करने पर भगवान् शिव ने इन्द्र के हाथी का शीश इनके धड से जोड़ दिया । जिस से इनका प्रसिद्ध नाम गजानन हो गया ।
ब्रह्म बैय्वार्त पुराण के अनुसार शनि की कु दृष्टि पड़ने के कारण गणेश जी का शीश गल गया था तब शोकाकुल अवस्था में ब्रह्म जी के पास पहुँची मां पार्वती नें अपनी दुःख भरी कथा कही जिस के अनुसार प्रथम दिखाई देने वाला प्रह्ताकाल व्यक्ति का शीश लगाने को ब्रह्मा जी नें कहा और पुनेह जीवित करने का वचन दिया फलस्वरूप पार्वती जी को पहला शीश गज का ही मिला जिसको ब्रह्मा जी नें बालक के धड से जोड़ दिया और पुनः जीवन दान दिया। इसके अलावा पद्य पुराण,शिव पुराण में भी गणेश जनम की अनेक कथाएँ मिलती हैं। जिनको लेकर विद्वानों के अनेक मत हैं कुछ विद्वानों का मानना है की शिव और गणेश दोनों मूलतः एक ही तत्व हैं शिव ही गणेश हैं और गणेश ही शिव हैं इनके प्रमाण में भालचंद्र त्रितय नेत्र और नागभूषण की और ध्यान आकर्षित करते हैं जिनका सम्बन्ध शिव के साथ साथ गणेश से भी है। गणेश जी की कमर में नाग बंध का उल्लेख है जिसका सम्बन्ध भगवान् शिव के हलाहल विषपान करने के पश्चात दाह को शांत करने के लिए सर्व भूषण और चंद्रमा धारण करने वाली लीला से है जो गणेश पुराण में भी मिलती है। अतः विद्वानों का यह मानना है की अग्नि में सोम तत्व या शान्ति तत्व का नाम गणेश है। जिनकी उपासना पूजा और दर्शन करने से जीव के उप्पेर पड़ने वाले सभी प्रकार के बौधिक एवं दैहिक प्रकोपों का नाश होता है। चौह्मुखी विकास पर चलता हुआ मानव इस जगत में अपनी नई ख्याति व रचना के लिए प्रसिद्ध होता है।
वास्तु के अनुसार गणेश जी को मन और बुद्धि का देवता होने के कारण सर्व प्रथम प्राथमिकता दी गई है गणेश जी की प्रतिमा जो ६-९ इंच तक की बनी हो वास्तु के दोष स्थान तथा द्वार बैध पर लगाने से वास्तु दोष दूर होता है। जिन भवनों के मुख्य द्वार वास्तु दोष से प्रभावित हैं उन भवनों में गणेश जी की प्रतिमा लगा कर ही सुख समृद्धि की स्थापना की जा सकती है .वास्तु के अनुसार गणेश जी की दो प्रकार की प्रतिमाओं का उल्लेख है -
१) उत्तरमुखी
२) दक्षिनामुखी
उत्तरमुखी प्रतिमा में गणेश जी की सूंड बायीं और मुडी होती है जिनको रिद्र डाटा कहा जाता है इस प्रतिमा को लगाने से सभी प्रकार की आर्थिक सम्पन्नता आती है तथा भौतिक सुख भी मिलते हैं लेकिन इस की upasanaa से बौधिक विकास के अच्छे प्रमाण नहीं मिलते हैं इस लिए यह प्रतिमा बुद्धिजीवी वर्ग शिक्षक ,पंडित और विद्यार्थी वर्ग आदि के भवन में विशेष उपयोगी नहीं होती है।

दक्षिनामुखी प्रतिमा में गणेश जी सूंड दायीं ओर मुडी होती है जिसका मिलना आधुनिक बाज़ार में जटिल हो गया है इसे सिद्ध दात्री कहा जाता है। क्यों की पुरानो का मत है की गणेश जी की दायीं तरफ़ सभी सिद्धियों का वास है .इसीलिए इस प्रकार की प्रतिमा बुद्धिजीवी वर्ग तथा विद्यार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है। इस प्रतिमा के लगाने से पूजा करने से बौधिक विकास जीवन में प्रसिद्धि तथा विद्या के शेत्र में ख्याति प्राप्त होती है। यह प्रतिमा शान्ति देने वाली होती है लेकिन इसका प्रयोग नैतिक एवं सात्विक तत्वों पर चलने वाले व्यक्तियों को ही करना चाहिए ।
इसके अलावा वास्तु दोष के लिए स्वेटर की जड़ द्वारा निर्मित गणेश प्रतिमा तथा स्वेटर का पौधा लगाने से भी सभी प्रकार के वास्तु दोषों का निवारण होता है। इसके साथ साथ इस बात का ध्यान रखना नितांत आवश्यक है की गणेश की प्रतिमा को छोड़ कर अन्य सभी प्रतिमाएं जो भवन के अंदर पूजा स्थल में लगायी गई हैं सीमित ही होनी चाहिए। जैसे दुर्गा या देवी की तीन सालिग्राम और शिव लिंग एक एवं अन्य सभी देवताओं की एक एक प्रतिमा होनी चाहिए.इस के अलावा यह भी ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है की प्रतिमाएं पूजा स्थल के बाहर अधयन्न कक्ष में ही राखी जा सकती हैं। प्रत्येक प्रतिमा की आकृति ६ इंच से छोटी तथा ९ इंच से बड़ी ना हो। अगर स्थान के आभाव में अलग से कक्ष बनाना सम्भव ना हो तो अपना पूजा स्थल उत्तर या उत्तर पूर्व में स्थापित कर रात्रि में शयन से पहले उसे परदा करना अत्यन्त आवश्यक है। खुला हुआ पूजा स्थल आपको अचानक दैविक परेशानी तथा मानसिक परेशानी प्रदान कर सकता है। ऐसा मेरा मत है।

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